भावार्थ : पाठ्यपुस्तक पृष्ठ क्रमांक ६५–६६ : कविता – सुनु रे सखिया और कजरी
सुनु रे सखिया
इसमें नायिका अपनी सखियों से कह रही है कि सुन सखी, बसंत ऋतु आ गई है, सब तरफ फूल महकने लगे हैं। बसंत ऋतु के आने से सरसों फूल गई है, अलसी अलसाने लगी, पूरी धरती हरियाली की चादर ओढ़ खिल उठी है। कली–कली फूल बनके मुस्कुराने लगी है।
इस ऋतु के आने से खेत, जंगल सब हरे–भरे हो गए हैं, जिसकी वजह से तन–मन भी हुलसने लगे हैं। इंद्रधनुष के रंगों की तरह रंग–बिरंगे फूल खिल उठे हैं। कजरारी आँखों में सपने मुस्कुराने लगे हैं और गले से मीठे गीत फूटने लगे हैं। बगिया के साथ यौवन भी अंगड़ाइयाँ लेने लगा है।
मधुर–मस्त बयार प्यार बरसाकर तार–तार रँगने लगी है। हर एक का मन गुलाब की तरह खिल रहा है। बाग–बगीचे हरे–भरे हो गए, कलियाँ खिलने लगीं, भौरे आस–पास मँडराने लगे। गौरैया भी माथे पर फूल सजा इतराने लगी है।
किंतु हे सखी, पिया के पास न होने से ये सब बबूल के काँटों की तरह चुभ रहे हैं। आँख में काजल धुल रहा है। आँसुओं की झड़ी लगी है पर बसंत फिर भी आ गया है फूलों की महक लेकर।
कजरी
मनभावन सावन आ गया। बादल घिर–घिर आने लगे। बादल गरजते हैं; बिजली चमकती है और पुरवाई चल रही है। रिमझिम–रिमझिम मेघ बरसकर धरती को नहला रहे हैं। दादुर, मोर, पपीहा बोलकर मेरे हृदय को प्रफुल्लित कर रहे हैं।
जगमग–जगमग जुगनू इधर–उधर डोलकर सबका मन लुभा रहे हैं। लता–बेल सब फलने–फूलने लगे हैं। डाल–डाल महक उठी है। सावन आ गया है।
सभी सरोवर और सरिताएँ भरकर उमड़ पड़ी हैं। हमारा हृदय सरस गया है। लोक कवि कहता है– ‘हे प्रिय ! शीघ्र चलो, श्याम की बंसी बज रही है।’