रस का शाब्दिक अर्थ है – निचोड़। रस काव्य की आत्मा है। काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनंद की अनुभूति होती है उसे रस कहा जाता है। विभाव, अनुभाव तथा संचारी भावों के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।
रस के चार अंग या अवयव हैं :
- स्थायी भाव
- विभाव
- अनुभाव
- संचारी भाव
स्थायी भाव : स्थायी भाव का तात्पर्य है प्रधान भाव। जो भावना स्थिर और सार्वभौम होती है उसे स्थायी भाव कहते हैं। स्थायीं भाव से ही रस का जन्म होता है। स्थायी भाव 11 माने गए हैं और रसों की संख्या भी 11 मानी जाती हैं। वे इस प्रकार हैं :
रस | स्थायी भाव |
1. शृंगार | रति (प्रेम) |
2. शांत | निर्वेद |
3. करूण | शोक |
4. हास्य | हास |
5. वीर | उत्साह |
6. रौद्र | क्रोध |
7. भयानक | भय |
8. बीभत्स | घृणा, जुगुप्सा |
9. अद्भुत | आश्चर्य |
10. वात्सल्य | ममत्व |
11. भक्ति | अनुराग |
विभाव : जो व्यक्ति, वस्तु अन्य व्यक्ति के हृदय में भाव जगाते हैं उन्हें विभाव कहते हैं। इनके आश्रय से ही रस प्रकट होते हैं। ये दो तरह के होते हैं – आलंबन विभाव तथा उद्दीपन विभाव। जिसका सहारा पाकर स्थायी भाव जगते हैं उसे आलंबन विभाव कहते हैं और जिन वस्तुओं या परिस्थितियों को देखकर स्थायी भाव उद्दीप्त होते हैं उन्हें उद्दीपन विभाव कहते हैं।
अनुभाव : वे गुण और क्रियाएँ जिनसे रस का बोध होता है अनुभाव कहलाते हैं। इनकी संख्या 8 मानी गई हैं – स्तंभ, स्वेद, रोमांच, स्वर भंग, कंप, विवर्णता (रंगहीनता), अश्रु, प्रलय। वाणी और अभिनय द्वारा इनसे अर्थ प्रकट होता है।
संचारी भाव : मन में संचरण करने वाले अर्थात आने-जाने वाले भावों को संचारी भाव कहते हैं। ये भाव पानी के बुलबुलों की तरह उठते और विलीन हो जाते हैं। इनकी संख्या 33 मानी गई है। हर्ष, विषाद, भय, लज्जा, ग्लानी, चिंता, शंका, मोह, गर्व, उत्सुकता, उग्रता, निद्रा, स्वप्न, आलस्य, मद, उन्माद आदि।
वात्सल्य रस : जब काव्य में अपनों से छोटों के प्रति स्नेह या ममत्व का भाव अभिव्यक्त होता है, वहाँ वात्सल्य रस का निर्माण होता है। माता का पुत्र के प्रति स्नेह, बड़ों का बच्चों के प्रति प्रेम, गुरु का शिष्य के प्रति प्रेम, भाई का भाई के प्रति या बहन का भाई के प्रति स्नेह आदि की परिपुष्टि होकर वात्सल्य रस का निर्माण होता है।
वात्सल्य रस के अंग (अवयव)
- स्थायी भाव : ममत्व, वत्सलता।
- अवलंबन : पुत्र, शिशु, शिष्य आदि।
- उद्दीपन : बाल लीलाएँ, बाल हठ आदि।
- अनुभाव : बालक को गोद में लेना, थपथपाना, सिर पर हाथ फेरना आदि।
संचारी भाव : हर्ष, गर्व, मोह, चिंता, आवेश आदि।
उदा. :
मैया मोहिं दाऊ बहुत खिझायो।
मोसो कहत मोल को लीन्हों तू जसुमति कब जायो।।
– सूरदास
मधुरता मय था मृदु बोलना।
अमृत सिंचित सी मुस्कान थी।
समद थी जनमानस मोहती।
कमल लोचन की कमनीयता।।
– अयोध्यासिह उपाध्याय ‘हरिऔध’
वीर रस : किसी पद में वर्णित प्रसंग हमारे हृदय में ओज, उमंग, उत्साह का भाव उत्पन्न करते हैं, तब वीर रस का निर्माण होता है। ये भाव शत्रुओं के प्रति विद्रोह, अधर्म, अत्याचार का विनाश असहायों को कष्ट से मुक्ति दिलाने में व्यंजित होते हैं।
वीर रस के अंग (अवयव)
- स्थायी भाव : उत्साह।
- अवलंबन : अत्याचारी शत्रु।
- उद्दीपन : शत्रु का पराक्रम, शत्रु का अहंकार, रणभेरी, यश की इच्छा आदि।
- अनुभाव : गर्वपूर्ण उक्ति, प्रहार, रोमांच आदि।
- संचारी भाव : आवेग, उग्रता, गर्व, चपलता आदि।
उदा. :
आजादी की राह चले तुम,
सुख से मुख को मोड़ चले तुम,
“नहीं रहूँ परतंत्र किसी का’
तेरा घोष अति प्रखर है
राजा तेरा नाम अमर है।
– डॉ. जयंत निर्वाण
बुझी राख मत हमें समझना, अंगारों के गोले हैं।
देश आन पर मिटने वाले, हम बारूदी शोले हैं।
– सुरेंद्रनाथ सिंह
करूण रस : किसी प्रियजन या इष्ट के कष्ट, शोक, दुख, मृत्युजनित प्रसंग के कारण अथवा किसी प्रकार की अनिष्ट आशंका के कारण हृदय में पीड़ा या क्षोभ का भाव उत्पन्न होता है, वहाँ करूण रस की अभिव्यंजना होती है।
करूण रस के अंग (अवयव)
- स्थायी भाव : शोक।
- आलंबन : विनष्ट व्यक्ति अथवा वस्तु आदि।
- उद्दीपन : आलंबन का दाहकर्म, इष्ट के गुण तथा उससे संबंधित वस्तुओं का वर्णन आदि।
- अनुभाव : भूमि पर गिरना, नि:श्वास, छाती पीटना, रूदन, प्रलाप, मूर्छा, कंप आदि।
- संचारी भाव : निर्वेद, मोह, व्याधि, ग्लानि, स्मृति श्रम, विषाद, जड़ता, दैन्य, उन्माद आदि।
उदा. :
हाय राम कैसे झेलें हम अपनी लज्जा अपना शोक,
गया हमारे ही हाथों से अपना राष्ट्र पिता परलोक
– अज्ञात
मरते कोमल वत्स यहाँ
बचती न जवानी परदेशी!
माया के मोहक वन की
क्या कहूँ कहानी परदेशी?
– रामधारी सिंह ‘दिनकर’
हास्य रस : जब काव्य में किसी की विचित्र वेशभूषा, अटपटी आकृति, क्रिया कलाप, रूप-रंग, वाणी एवं व्यवहार को देखकर, सुनकर, पढ़कर हृदय में हास्य का भाव उत्पन्न होता है, वहाँ हास्य रस की निर्मिति होती है। स्वभावत: सबसे अधिक सुखात्मक रस है यह।
हास्य रस के अंग (अवयव)
- स्थायी भाव : हास
- आलंबन : विकृत वेशभूषा, आकार एवं चेष्टाएँ
- उद्दीपन : आलंबन की अनोखी आकृति, बातचीत, चेष्टाएँ आदि।
- अनुभाव : आश्रय की मुस्कान, नेत्रों का मिचमिचाना, अट्टाहास आदि।
- संचारी भाव : हर्ष, आलस्य, निद्रा, चपलता, कंपन, उत्सुकता
उदा. :
मच्छर, खटमल और चूहे घर मेरे मेहमान थे,
मैं भी भूखा और भूखे ये मेरे भगवान थे।
रात को कुछ चोर आए, सोचकर चकरा गए
हर तरफ चूहे ही चूहे, देखकर घबरा गए।
– हुल्लड़ मुरादाबादी
सुबह से शाम तक पप्पू जप रहा भगवान का नाम।
खा रहा बार-बार बादाम, लगा रहा कोई बाम।।
घर वाले समझ गए कि आ गया है एग्जाम।
आ गया है एग्जाम अत: पप्पू का सिर है जाम।।
– सुरेंद्र रघुवंशी
भयानक रस : जब काव्य में भयानक वस्तुओं या दृश्यों के प्रत्यक्षीकरण के फल स्वरूप हृदय में भय का भाव उत्पन्न होता है, तब भयानक रस की अभिव्यंजना होती है। इसके अंतर्गत कंपन, पसीना छूटना, मुँह सूखना, चिंता आदि भाव उत्पन्न होते हैं।
भयानक रस के अंग (अवयव)
- स्थायी भाव : भय
- आलंबन : भयंकर पशु, स्थान, वस्तु के दर्शन आदि।
- उद्दीपन : भयानक वस्तु का स्वर, भयंकर स्वर, ध्वनि, चेष्टाएँ, डरावना पन आदि।
- अनुभाव : कंपन, पसीना छूटना, मुँह सूखना, चिंता होना, रोमांच, मूर्छा, पलायन, रूदन आदि।
- संचारी भाव : दैन्य, सभ्रम, चिंता, सम्मोह आदि।
उदा. :
चिंग्घाड भगा भय से हाथी,
लेकर अंकुश पिलावन गिरा।
झटका लग गया, फटी झालर
हौदा गिर गया, निशान गिरा।।
– अज्ञात
आगे पहाड़ को पा धारा रूकी हुई है।
बल-पुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुई है।
अग्निस्फुलिंग रज का बुझ ढेर हो रहा है।
है रो रही जवानी, अंधेर हो रहा है।
– रामधारी सिंह ‘दिनकर’